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पश्चाताप के आंसू | Hindi Moral Short Story | Hindi Kahani New | New Hindi Story
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पश्चाताप के आंसू | Hindi Moral Short Story | Hindi Kahani New | New Hindi Story
एक बार की बात है, एक महात्माजी वन में बने एक आश्रम में रहते थे। वे आश्रम में एक गुरुकुल भी चलाते थे जिसमे आसपास के राज्यों के बालक ज्ञानार्जन के लिए आते थे। महात्माजी दिव्य, ज्ञानी एवं विद्वान पुरुष थे। बालकों का भावी जीवन में व्यावहारिक कठिनाइयों से संघर्ष को तैयार करना उनका उद्देश्य था। गुरुकुल में अनेक बालक थे परंतु उनमें देववृत नामक बालक अत्यंत होनहार कुशाग्र बुद्धि एवं ईमानदार था, जबकि विष्णुदत्त नाम का बालक अति उदण्ड एवं असत्य वचन बोलने वाला था।
एक दिन महात्माजी अपने शिष्यों सहित नदी पर स्नान के लिए गए। उनके साथ देववृत तथा विष्णुदत्त भी थे। नदी पर अचानक देववृत की दृष्टि पानी में चमकती वस्तु पर पड़ी। देववृत ने उस वस्तु को बाहर निकाला। वह किसी देवदूत की मूर्ति थी उसने वह मूर्ति जाकर महात्माजी को सौंप दी। तब गुरुजी ने कहा-'वत्स ! यह मूर्ति चमत्कारिक है, जिसके पास यह रहेगी, उसे संसार के सभी सुख उपलब्ध होंगे, इस मूर्ति से मांगने पर मनचाहा धन प्राप्त होता है।' विष्णुदत्त के मन में उस मूर्ति को पाने का लालच आ गया। वह उसकी सहायता से समस्त ऐश्वर्य प्राप्त कर लेना चाहता था। रात होने पर उसने गुरुजी की कुटिया से वह मूर्ति चुरा ली तथा चुपचाप आश्रम से निकल भागा। मार्ग में उसने सोचा क्यों न इस मूर्ति की परख कर ली जाए यह सोचकर वह बोला-'हे देवता! मुझे कुछ स्वर्ण मुद्राएं चाहिए, कृपया प्रदान करें ।' तुरंत कुछ मुद्राएं सामने बरस पड़ीं। यह दृश्य वहीं समीप छिपे कुछ डाकू भी देख रहे थे । उन्होंने विष्णुदत्त को घायल करके वह मूर्ति छीन ली और भाग गए। इधर आश्रम में प्रात: विष्णुदत्त को न पाकर सभी विद्यार्थी गुरुजी के पास पहुंचे तथा विष्णुदत्त के लापता होने की बात बताई | गुरुजी बोले-'वत्स ! मुझे सब पता है ' तथा उन्होंने सभी शिष्यों को साथ चलने का आदेश दिया | कुछ दूर चलने पर उन्होंने किसी के कराहने का स्वर सुना, पास जाने पर सबने विष्णुदत्त को लहू-लुहान अवस्था में पड़े देखा | महात्माजी ने सबको शांत रहने को कहा तथा विष्णुदत्त को आश्रम ले आए। उसका उपचार किया गया। दो-तीन दिन बाद जब विष्णुदत्त कुछ स्वस्थ हुआ तो महात्माजी ने उससे पूछा- “वत्स विष्णुदत्त! अब तुम कैसा अनुभव करते हो।' गुरुजी के वचनों को सुनकर विष्णुदत्त फूट-फूटकर रोने लगा और बोला-' हे गुरुवर! मुझे क्षमा करें, मैंने लालच में आकर यह कृत्य किया, मुझे मेरे पाप का दंड मिल गया। मुझे क्षमा करें गुरुदेव ! ' महात्माजी ने उसे आशीर्वाद दिया और सभी शिष्यों से बोले-' देखो सांसारिक माया-मोह, लोभ आदि के पीछे भागने वाले को कभी मानसिक शांति एवं मोक्ष प्राप्ति नहीं हो सकंती। जीवन का सच्चा आनंद तो इच्छाओं का दमन कर सात्विक जीवन बिताने में निहित है।' सभी ने विष्णुदत्त की ओर देखा, उसकी आंखों में पश्चाताप के आंसू स्पष्ट छलक रहे थे।
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