दानी राजा और रानी सोनपरी | Hindi Kahani New | Moral Kahani In Hindi
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दानी राजा और रानी सोनपरी | Hindi Kahani New | Moral Kahani In Hindi
बहुन समय पहले की बात है। जगतगढ़ राज्य पर राजा कृष्णदेव राज करते थे उनकी दानशीलता के किस्से दूर-दूर तक फैले हुए थे। एक बार उनके दरबार में सदानन्द नाम का एक ब्राह्मण दान मांगने आया। "महाराज की जय हो! महाराज, मैं बहुत गरीब ब्राह्मण हूंऔर आपसे दान 'मिलने कीआशा में आपके पास आया हूँ।" राजा कृष्णदेव ने झट से खजांची को आदेश दिया। "खजांची इस निर्धन ब्राहमण को राजकोष से स्वर्ण मुद्राओं की एक थैली दे दो। " सदानन्दने राजा कृष्णदेव से कहा "राजकोष में तो प्रजा का धन है। मैं तो आपसे दान चाहता हूं।" सुनकर कृष्णदेव सोच में पड़ गये, फिर सदानन्द से बोले " ब्राहमण देवता! मैं इस देश का राजा हूं इसलिए राजकोष के धन में से किसी को कुछ भी दे सकता हूँ। अतः आपको खजाने में से स्वर्ण मुद्राएं लेने में भला क्या आपत्ति है? " तब सदानन्द ने कहा " महाराज आप अपनी मेहनत के द्वारा कमाये धन में से कुछ सकें तो दें, वरना में खाली हाथ ही लौट जाऊंगा | " सदानन्द की वात सुनकर राजा कृष्णदेव बोले "ठीक है सदानन्द! तुम हमारे पास दान लेने के लिए पांच दिन पश्चान् आना तब हम अपनी मेहनत के द्वारा कमाये धन में से ही तुम्हें दान देंगे।" जो आज्ञा महाराज कहकर सदानन्द खाली हाथ दरबार से चला गया। उसके जाने के बाद राजा कृष्णदेव सोचने लगा हमें ऐसा कौन-सा मेहनत का कार्य करना चाहिए, जिससे हम सदानन्द पंडित को दान देने के लिए धन जमा कर सकें। उसने सोचा " रात्रि होने पर मैं महल से किसी काम की खोज में निकलूंगा | तब मुझे कोई न कोई काम अवश्य मिल जायेगा। " उसी रात वह वेश बदलकर अपने महल से निकला और अपने राज्य में काफी धूमने के पश्चात् ऐसे स्थान से गुजरा, जहां एक लुहार काफी रात बीत जाने पर भी अपना कार्य कर रहा था। उसने लुहार के पास जाकर काम माँगा और लुहार ने उसे अपने यहां काम पर रख लिया। कृष्णदेव उसी समय से काम में जुट गया। सारी रात काम करने के पश्चात् लुहार ने उसे एक मुद्रा देते हुए कहा " लो भाई ! यह मुद्रा तुम्हार रात भर काम करने का मेहनताना है। " उस दिन से पुरे पांच दिन तक कृष्णदेव प्रतिदिन रात को भेष बदलकर बूढ़े लुहार के पास जाता और सारी रात काम करता ।
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इस प्रकार लुहार के यहाँ काम करके कृष्णदेव ने पांच मुद्राएं इकट्ठी कर ली थी। पांच दिन बाद कृष्णदेव ने उन पांच मुद्राओं को पंडित सदानन्द को दान में दे दी। इस घटना को दो वर्ष बीत गए। एक दिन राजा कृष्णदेव नगर भ्रमण पर निकले। रस्ते में एक भव्य भवन को देखकर राजा कृष्णदेव ने भवन मालिक के बारे में जानना चाहा तो पता चला की यह भवन पंडित सदानन्द का है। राजा की सवारी देखकर सदानन्द भवन से निकलकर राजा कृष्णदेव के पास पहुंचा और प्रणाम किया। सदानन्द के बदले हुए रूप को देखकर कृष्णदेव उसे पहचान न सका। तब सदानन्द ने कहा " महाराज ! मैं वही गरीब ब्राह्मण सदानन्द हूँ जिसे दो वर्ष पहले आपने अपनी मेहनत के द्वारा अर्जित की हुई पांच मुद्राएं दान में दी थी। यह सुनकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ और उसने सदानन्द से उसकी इस कायाकल्प का राज पूछा। तब सदानन्द ने उसे बताया कि महाराज यह आपके पसीने से अर्जित की हुई पांच मुद्राओं का कमाल है। जिस दिन मैंने आपके द्वारा दान दिये उन पांच मुद्राओं को अपने दोनों आलसी बेटों को दिया उसी दिन से ना जाने कैसे मेरे दोनों बेटे जी तोड़कर मेहनत करके कमाने लगे। जिसके फलस्वरूप अपनी झोपड़ी के स्थान पर यह भव्य भवन खड़ा कर सका। शायद इसीलिए कहा गया है की मेहनत द्वारा कमाई गई धन सदा फलदायी होती है। सुनकर कृष्णदेव बहुत प्रसन्न हुआ तब सदानन्द ने राजा को आदर सहित अपने भवन में ले गया। वहां उसने राजा कृष्णदेव का खूब आतिथ्य सत्कार किया। भोजन के पश्चात सदानन्द ने राजा से कृष्णदेव से एक विचित्र बात कही उसने कहा की " महाराज ! आप जैसे न्यायप्रिय, दानी व शक्तिशाली राजा के यहाँ कोई संतान नहीं है। क्या आपके बाद आपकी वंश परम्परा समाप्त हो जाएगी। " इस पर कृष्णदेव ने निराशा भरे स्वर में कहा " नियति को शायद यही मंजूर है। संतान तो ईश्वर की देन होती है। हमारे भाग्य में संतान सुख नहीं हैं।" तब सदानन्द ने कहा " ऐसी निराशा भरी बातें ना कीजिये महाराज ! आपके यहाँ संतान अवश्य होगी , लेकिन संतान पाने के लिए आपको महारानी के साथ श्याम वन में जाना होगा। " सुनकर कृष्णदेव आश्चर्य चकित होकर बोला " श्याम वन में ? तुम्हारी बातें तो हमारी समझ में बिल्कुल भी नहीं आ रही है। तुम्हे जो कहना है साफ-साफ कहो। तब सदानन्द ने बताया कि " तो सुनिये महाराज ! कल शाम मैं अपने नगर की ओर आता हुआ जब श्याम वन में से गुजरा था तो मुझे एक घायल गिद्ध दिखाई पड़ा। जब मैंने उसका उपचार कर आगे बढ़ना चाहा तो उसने मुझे पुकारकर कहा " सुनो सदानन्द तुमने मुझ पर बड़ा उपकार किया है। कहो , तुम्हारे उपकार का बदला मैं किस प्रकार चुकाऊं ? उसे बोलता देख मैं घबरा गया। तब उसने फिर मुझसे कहा " घबराओं नहीं सदानन्द , मुझे मनष्यों की भाषा बोलते देखकर तुम चकित ना हो। मैं एक शाप के कारण ऐसा हूँ। मैं अगर तुम्हारें उपकार का बदला चूका दूंगा तो मुझे इस शाप से मुक्ति हो जाएगी। मैं तब उससे पूछा कैसा शाप ? तब उसने बताया कि मैं एक योगी हूँ। मैंने बहुत तप करके बहुत-सी सिद्धियां प्राप्त की थी जिसके कारण मुझे अहंकार आ गया था। उसी अहंकार के कारण मैं अन्य योगियों की तपस्या में विघ्न डाला करता था। एक बार मैं एक जंगल से गुजर रहा था। मैंने देखा एक संत एक पेड़ के नीचे ध्यान मुद्रा में बैठे थे। मैंने उनकी ध्यान मुद्रा विघ्न डालने के लिए अपनी शक्ति से भयंकर बदबू वाला एक मांस का टुकड़ा प्रकट किया और उनके आगे फेंक दिया। अत्यधिक बदबू के कारण उन्होंने तुरंत अपनी आँखे खोल दिया और अत्यंत क्रोध से भरकर उन्होंने कहा कि जिसने भी यह हरकत की वह तुरंत मांस खाने वाला गिद्ध बन जाए। और उनके ऐसा कहते ही मैं तुरंत गिद्ध बन गया। फिर मुझे अपनी गलती का अहसास हुआ और मैं उनके पैरों में गिर गया और उनसे माफ़ी मांगने लगा। काफी अनुमय- बिनय करने के बाद उन्होंने कहा कि " जाओ जिस दिन तुम किसी ऐसे व्यक्ति पर उपकार करोगे जो अपना नहीं बल्कि तुमसे किसी और के लिए भला चाहेगा उसी दिन तुम्हे इस योनि से मुक्ति मिल जाएगी। " इतना कहकर वह गिद्ध कुछ देर चुप हो गया। तब मैंने विचारकरके उससे आपके लिए संतान माँगा। तब उस गिद्ध ने कहा की ठीक है कल तुम्हारे राजा को अपनी महारानी के साथ मेरे पास स्वयं चलकर आना होगा। इतना कहकर सदानन्द शांत हो गया। फिर कृष्णदेव ने कुछ सोचकर कहा "ठीक है सदानन्द ! मैं उस गिद्ध से मिलने श्याम वन में अवश्य जाऊंगा। इतना कहकर राजा कृष्णदेव सदानन्द से विदा लेकर अपने महल लौट आएं। अगले दिन सुबह तड़के ही वह अपनी महारानी के साथ गिद्ध से मिलने श्याम वन जा पहुंचे।कुछ देर बाद उनका रथ श्याम वन जा पहुंचा।
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अभी वे कुछ ही आगे बढ़े थे कि एक आवाज़ गुंजी। " राजा कृष्णदेव मैं इधर हूँ " कृष्णदेव ने जब आवाज़ की दिशा अपनी गर्दन में घुमाई तो देखा एक विशालकाय गिद्ध खड़ा था। राजा और महारानी गिद्ध के समीप पहुंचे। तब गिद्ध ने कहा " राजा कृष्ण्देव आप स्वयं चलकर मेरे पास आएं हैं , इसलिए मैं आपकी संतान की इच्छा अवश्य पूरी करूंगा। " कहकर उसने हाथ में एक फल निकालकर महारानी की तरफ देते हुए कहा " लो महारानी इस फल को खा लेना तुम्हे निश्चित समय पर संतान होगी। इसके बाद गिद्ध वहां से जाने के लिए उड़ा तभी उसे सहसा कुछ याद आया और उसने कृष्णदेव से कहा " कृष्ण्देव मैंने तुम्हारे दानवीरता के बारे में काफी कुछ सुना है। क्या तुम मुझे भी कुछ दान में दे सकते हो ? इसपर कृष्णदेव ने कहा अवश्य गिद्धराज ! कहिये आप को क्या चाहिए ? फिर उस गिद्ध ने कहा " सुनो राजन मेरा मित्र , जो कि वह भी एक गिद्ध है उसकी काफी दिनों से इंसानी ताजा मांस खाने की इच्छा है। क्या तुम मुझे अपने शरीर से एक मांस का टुकड़ा दे सकते हो ? इतना सुनने के बाद कृष्णदेव ने तुरंत अपने म्यान से तलवार खींची और अपनी बांह से मांस का एक टुकड़ा काटकर उस गिद्ध को सौंप दिया। गिद्ध कृष्णदेव का धन्यवाद करके वह मांस का टुकड़ा लेकर एक ओर उड़ गया। उसके बाद कृष्णदेव भी महारानी के साथ वापस महल में लौट आएं। इस घटना के कुछ दिन बाद ही महारानी गर्भवती हो गयी। कृष्णदेव ने इस ख़ुशी में महल में एक विशाल भोज का आयोजन किया जिसमें कि राज्य के नागरिकों के साथ साथ बहुत से साधु-संत भी आये थे। कृष्णदेव ने उनके आदर-सत्कार में कोई कमी नहीं रहने दी। उन्ही साधु-संतो के बीच एक ऋषि ने भोजन करने के उपरांत कृष्णदेव से दक्षिणा मांगी। उसने कहा कि हम तुम्हारे आदर- सत्कार से पूरी तरह संतुस्ट हैं। क्या तुम मुझे दक्षिणा में अपनी रानी को दे सकते हो ? उस ऋषि की बात सुनकर कृष्णदेव भौचक्का रह गया। तब उस ऋषि ने कहा " क्या हुआ राजन ? क्या तुम अपनी प्रिय रानी को मुझे दक्षिणा में नहीं देना चाहते ? तब कृष्णदेव ने कहा "ऋषिवर ! आपने माँगा भी तो क्या माँगा ? तब उस ऋषि ने फिर कहा "राजन ! यदि तुम्हें दक्षिणा में अपनी पत्नी को देते हुए दुःख का अनुभव हो रहा है तो रहने दीजिये। कुछ देर सोचने के बाद उसने ऋषि से कहा " ठीक है ऋषिवर ! मैं आपको अपनी पत्नी दान में देता हूँ। " राजा कृष्णदेव ने जैसे ही संकल्प करके अपनी पत्नी को उस ऋषि को सौंपना चाहा उसी समय ऋषि ने कहा " ठहरो राजन ! मैं कोई ऋषि नहीं हूँ ,बल्कि परीलोक की रानी सोनपरी हूँ। मुझे इंद्रलोक के राजा ने आपकी दानशीलता की परीक्षा के लिए पृथ्वीलोक में भेजा हैं। उसने आगे कहा की मैं वही गिद्ध हूँ, " जिसे तुम श्याम वन में मिले थे। मैं तभी से आपकी परीक्षा ले रही हूँ। आप अपनी परीक्षा में बिल्कुल खरे उतरे हैं। मैं आपसे बहुत खुश हूँ। राजन ! आपकी परीक्षा पूरी हुई। आप सचमुच ही मनुष्यों में श्रेष्ठ हैं। कहकर सोनपरी अपने असली रूप में आ गयी। "
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उसके बाद उसने राजा कृष्णदेव से विदा लिया और अपने परीलोक वापस चली गई। कृष्णदेव ने बरसों अपने राज्य पर राज किया तथा उसके दानशीलता के चर्चे भी दूर-दूर तक फ़ैल गए।
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